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हिरनखेड़ा की बातें आज याद आ रहीं हैं जिसे मैं कभी भूल नहीं पाता...भाग 2

इंटरनेट की खंगाली में  जो कुछ हाथ लगा, वह जबर्दस्त है। यह एक ऐसा दस्तावेज है जो हम कई साल से खोजने की कोशिश कर रहे थे। हमारे गांव हिरनखेड़ा से जुड़ी हुई यादें और उसके ऐतिहासिक पक्ष का एक बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज। यह संयोग ही है कि उदंती डॉट कॉम की संपादक रत्ना वर्मा ने अप्रैल अंक में मेरी कविता मलाजखंड प्रकाशित की। ( जिसे आप इसी ब्लॉग पर मेरी कविताएं सेक्शन में देख सकते हैं) और खोजते—खोजते उनके ही इसी ब्लॉग पर मैं इस दस्तावेज तक जा पहुंचा। आप भी पढ़िए दिलचस्प है यह जेल डायरी। इसकी यह पहली किस्त है। रत्ना वर्मा को आभार सहित। राकेश

( भूतपूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री बृजलाल वर्मा की जेल डायरी से )

सेवा सदन हिरनखेड़ा में पढऩे के दौरान की कुछ ऐसी बातें आज याद आ रहीं हैं जिसे मैं कभी भूल नहीं पाता। जैसा कि पहले ही बता चुका हूं कि वहां रायपुर जिले से बहुत से साथी एक साथ रहते थे एक दिन सुबह का समय था करीब 7-8 बजे का-हम कुछ साथी एक साथ दौडऩे या खेलने गये थे , हमारे साथ लकडिय़ा गांव का रहवे वाला जगदम्बा प्रसाद तिवारी जो अब बसंत कुमार तिवारी कहलाने लगा भी साथ में था। वह मुझसे शरीर में तगड़ा था तथा खेलकूद, तैरने आदि में मुझसे आगे ही रहता था । वह दातून तोडऩे के लिए एक नीम के पेड़ पर काफी ऊपर तक चढ़ गया । अचानक मैंने देखा कि वह नीचे जमीन पर गिर गया है। हम लोगों की उम्र तब लगभग 12 साल रही होगी। मैं एकदम घबरा गया वह थोड़ा बेहोश सा लगा पर कुछ चोट नहीं लगी, फिर उठ कर धीरे-धीरे साथ चला आया वह जहां से गिरा था वह लगभग 20 -22 फुट ऊंचाई से कम नहीं था। ईश्वर ने उस दिन साथ दिया मेरे प्यारे साथी को ज्यादा चोट नहीं आई और हम सकुशल संस्था वापस आ गये। मुझे वह घटना आज भी याद है पर उसे याद है या नहीं कह नहीं सकता। हम लोगों ने डर कर पंडित जी से यह बात नहीं बतलाई थी। 

जब भी मैं गर्मी की छुट्टिïयों में पलारी आता था -उस समय दीवाली, दशहरा में आना नहीं होता था- तो अधिकांश समय खेलकूद में ही बीताता था । सुबह- सुबह पलारी के कुछ लड़कों को साथ लेकर बालसमुंद जाता और वहां घंटे - दो घंटे खूब तैरता। यह सब मैंने करीब 14-15 साल की उम्र तक किया। उसी दौरान मैंने घर में पिताजी की लाल घोड़ी, जो बड़ी तेज तथा बदमाश थी, जिस पर सिर्फ पिताजी ही सवारी किया करते थे, की भी घुड़सवारी करने लगा। मैं उस घोड़ी में दो माह तक रोज सुबह उठकर घुड़सवारी करता था। सहीश से कहकर उसे अस्तबल से बाहर निकलवाता और घर में बिना किसी को बताए चुपचाप निकल पड़ता था, क्योंकि घर के लोग उस घोड़ी पर बैठने से मना करते थे, कि घोड़ी बदमाश है गिरा देगी, मत बैठना। सच भी था वह घोड़ी किसी को अपनी पीठ पर बैठने नहीं देती थी। पहले तो मैं उसकी आंख में टोपा बांध देता था फिर एक ऊंचे स्थान पर ले जाता था और कूदकर बैठ जाता। वह दोनों पैर से कूदती थी। पर मैं एक बार बैठ गया तो फिर मुझे डर नहीं लगता था। वह बड़ी तेजी से दौड़ती थी। मैं चाल से दौड़ाना तो जानता नहीं था अत: उसे पल्ला दौड़ाता था इसलिए वह सीधे खेतों की मेढ़ों को कूदती हुई छलांग मारती बहुत तेजी से भागती थी।


 इस तरह से उसके दौडऩे से मेरा शरीर भी नहीं हिलता था। इतनी तेज भागने वाली बहुत कम घोडिय़ां होती हैं, मुझे उसपर घुड़सवारी करने में बड़ा आनंद आता था। कुछ दिनों के बाद घर में सब जान गये तब फिर मुझे उस पर बैठने से मना भी नहीं किया। अपने इस घुड़सवारी के शौक के कारण ही, जब भी गांव में किसी की अच्छी बड़ी घोड़ा-घोड़ी आती मैं बैठने की जरूर इच्छा करता और कुछ देर बैठकर जरूर मजा ले लेता था। एक वक्त की बात है कि हम बहुत से लोग गर्मी की छुट्टïी में गांव आये और (तुरतुरिया पलारी गांव के पास का पर्यटन स्थल)जाने की इच्छा व्यक्त की, पर गाड़ी से नहीं, घोड़े से तब सबके लिए करीब 8-10 घोड़े बुलवाये गए । मैंने पास के गांव दतान के एक घोड़े की बहुत तारीफ सुनी थी वह भी लाया गया था। उसे सुबह जब पानी पिलाने जब सहीश ले जा रहा था तो मैं ले चलता हूं कहकर उसपर बैठ गया। मेरे बैठते ही वह घोड़ा अड़ गया मैंने खूब पैर मारा तब कहीं वह रास्ते में आया मैंने भी उसे खूब दौड़ाया। नये तालाब के पार के ऊपर बड़ी तेजी उसे दौड़ा रहा था तभी ठोकर खाकर घोड़े सहित गिर गया।

 मैं पहले गिरा और मेरे ऊपर घोड़ा पर तालाब के पार में उतार होने से मैंने घोड़े को अपने छाती पर से लुढ़का दिया। वह दिन मेरी मौत का सा दिन था मालूम नहीं कैसे एकदम मुझे होश आया और मैंने अपने छाती पर हाथ रखके घोड़े को एकदम ढकेलकर सिर के ऊपर से लुढ़का दिया। मेरा चचेरा भाई विष्णुदत्त सब देख रहा था वह दौड़ा , मेरी पूरी पीठ भर छिल गई थीपर कोई अंदरूनी चोट नहीं लगी थी। चुपचाप घर आकर दवाई पीठ पर लगा लिया किसी को (पिताजी) को मालूम नहीं होने दिया। पर गांव में बात छिपती कहां हैं बाद में मालूम हुआ तो बहुत नाराज हुए। 

इसी तरह एक बार की और घटना है पलारी में ही मैं एक बदमाश घोड़े पर बैठकर बाहर गया मुझे तो इस तरह के घोड़े पर बैठने पर मजा आने लगा था पर बाहर जाकर घोड़े के साथ ऐसा गिरा कि मेरी टांग घोड़े के नीचे हो गई। मेरे घुटने में चोट आई और करीब 2 माह तक बहुत तकलीफ हुई। पिताजी को यह भी मालूम ही हो गया पर वे इस बार कुछ बोले नहीं क्योंकि वे जान गये थे कि अब मेरी आदत ही बदमाश किस्म के तेज घोड़ों पर बैठने की हो गई है। 

एक घटना घोड़े को लेकर और याद आ रही है- जब मैं नागपुर में ला कॉलेज पढ़ रहा था तो कुछ घोड़े बेचने वाले वहीं पास में ठहरे थे। मेरे साथी की इच्छा हुई कि चलो इनसे यह कहकर घोड़े पर बैठें कि हमें खरीदना है। मेरा वह साथी मंडला के तहसीलदार का लड़का श्याम बिहारी शुक्ला था । हम दोनों दो घोड़ा लेकर दो चार दिन रोज दौड़ाने ले जाया करते थे। उसी समय मेरी इच्छा एक घोड़ी को खरीदने की हो गई। क्योंकि उन दिनों जो हमारे यहां घोड़ी थी वह शायद मर गई थी। मैंने 350 रू. में उसे खरीद लिया और घर पत्र लिख दिया कि एक अच्छी घोड़ा खरीदा हूं इसे बुलवा तो और पैसे भी भेज दो। पिताजी नाराज हुए पर काकाजी ने आदमी और पैसा भेजा दिया यह कहते हुए कि उसे घोड़ों का शौक है यहां हमेशा बड़ा घोड़ा रहता था अब नहीं है खरीद लिया तो क्या हुआ। घोड़ी बहुत खूबसूरत थी थोड़े दिनों में वह कुछ बीमार सी दिखी तो पिताजी ने बाद में उसे बेच दिया था।

कॉलेज के बाद का सार्वजनिक जीवन 


विद्यार्थी जीवन में मैं सन् 28-29 से लेकर 43-44 तक घर से बाहर रहने के कारण अपने गांव और जिले में लोगों से अधिक परिचय न कर सका। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पिताजी का प्रभाव राजनैतिक सहयोगी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते रायपुर व दुर्ग जिले में काफी अच्छा था उसी का फायदा मुझे पढ़ाई करके लौटने के बाद मिला। उनकी ही बदौलत मैंने राजनैतिक क्षेत्र के लोगों के बीच जाना शुरू किया। वकालत करने के दौरान भी बहुत से लोगों से मेरे संबंध जुड़े। 
उसके बाद के राजनैतिक व सार्वजनिक कार्यों में प्रोत्साहित करने का पूरा श्रेय स्व. डॉक्टर खूबचंद बघेल एवं ठा. प्यारेलाल सिंह को जाता है। उन्होंने मुझे राजनीति की अच्छी शिक्षा दी, मुझे बढ़ावा दिया तथा अपने पूर्ण विश्वास में लेकर बहुत सा कार्य मुझसे कराया और जिम्मेदारियां दीं। इन दोनों महान व्यक्तियों का मैं हमेशा ऋणी रहूंगा जिनने मुझे हर कार्य के लिए अपने साथ रखा। इसी तरह स्व. ठाकुर निरंजन सिंह, (नर्सिंगपुर) का भी जो प्यार एवं सहयोग मिला वह भी नहीं भुलाया जा सकता। असेम्बली में तो मुझे उन्हीं की बदौलत कार्य करने का ज्यादा मौका मिला। उनने ही मुझे सिखाया कि असेम्बली में कैसे कार्य करना चाहिए, कैसे प्रश्न पूछना चाहिए, किस प्रकार से बोला जाता है तथा असेम्बली के अंदर शासक दल को कैसे अड़चन में डाला जा सकता है। असेम्बली के कार्यों में मुझे स्व. ताम्रकर (दुर्ग) ने भी बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने दो वर्षों में मुझे असेम्बली के अंदर ऐसा बना दिया कि जब कभी विरोधीदल के हमारे प्रमुख नेता गैरहाजिरी रहते थे तब मैं अकेला असेम्बली के सभी विषयों पर तथा बिलों पर जवाब देता था और विरोधी दल की कोई कमजोरी शासक दल को महसूस नहीं होने देता था। 

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